रविवार, 10 अप्रैल 2011

गुजराती रेखाचित्र


गुजराती रेखाचित्र

मैं कृष्णा मजीठिया

"मैं कृष्णा मजीठिया" । फोन पर हमेशा पंजाबी लहजो वाला यह वाक्य जिसने भी सुना होगा उसकी नजरों के सामने कृष्णाबेन का आभायुक्त स्नेह से भरा हुआ चेहरा आत्मीयता से परिपूर्ण ’करीब छः फुट ऊँचा धारदार तीखी आंखों वाला ,एक स्पोर्ट्स वुमन जैसा कसावट युक्त शरीर , प्रतिभाशाली व्यक्तित्व तो आँखो के सामने आता ही है, उसकी स्मृति भी कई दिनों तक मन से नहीं बिसरती। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसकी मधुर आवाज बार - बार कानों में गूँजती रहती है। तब वे भावनगर में हिन्दी व्याख्याता के रुप में नई नई नियुक्त हुई थी । तब सौ सवा सौ विद्यार्थियों के कक्षा कक्ष में उपस्थित होने के बावजूद किसी की शरारत करने की मजाल नहीं होती । ऐसी तिरछी नजर कि आखिरी बैंच पर बैठे हुए विद्यार्थियों की ओर घुमती और उसके बाद कहीं कोई चूं-चां नहीं होती। अध्यापिका के रुप में वे पूर्णतया सफल रही। हर्षपूर्ण एवम् पूर्णतया सहज व्याख्यान। कामनरुम में भी उनकी आवाज उतनी ही प्रभावशाली तर्कबद्ध व विषयोचित। स्पष्ट अभिव्यक्ति तो मानों उनको वरदान में ही मिली हो। वरिष्ठ अध्यापक भी उनकी व्यक्तव्य क्षमता को सराहते नहीं थकते। मोक-पार्लियामेन्ट का कार्यक्रम हो या फिश-पोन्ड का संगीत संध्या का आयोजन हो या भाषण स्पर्धा के लिए चयन , बैटमिंटन का खेल खेलना हो या फिर यूथ-फेस्टिवल के लिए टीम लेकर दिल्ली जाने की जिम्मेदारी सौपी जाये। अध्यापक सम्मेलन हो या विकास ग्रह द्वारा कोई सामाजिक समस्या के निराकरण का कार्यक्रम सभी में एक जैसा उत्साह ,रस रूचि से लबालब उन्होने अपनी अमिट छाप न छोड़ी हो ,ऐसा प्रसंग शायद ही कभी मिले। वे कुछ भी करती उसमें उनकी पूरी भागीदारी होती। कुछ भी अधकचरा ,कुछ भी अपूर्ण,कुछ भी बिना तैयारी के उनको स्वीकार्य नहीं था। केवल बाहर ही नहीं उनका घर भी इसी तरह सुसज्जित-सुव्यवस्थित था। उसमें भी उनकी ऊँची पसंद झलकती। कामर्स कालेज के सामने रामनिवास के पास सरदारनगर में उनके 1652 नंबर के प्लाट में प्रवेश करें तो यह कृष्णा व्यक्तित्व स्पष्ट रूप से नजर आता। बाहर बगीचा-बगीचे में झूला लगा हुआ ,दरवाजे और खिड़कियों पर अपनी पसंद के परदे ,टी.वी.-टेप केबिनेट या फोन के रखरखाव में ही नहीं बल्कि आगन्तुक के अनुरूप स्वागत सत्कार में भी उनकी पहचान बराबर बनी रहती। गर्मियों में काल्ड -ड्रिक्स ,लस्सी तथा सर्दियों की ढलती सांझ में गर्मागर्म चाय-काॅफी के साथ मेंहमानों को प्रेमपूर्वक लजीज भोजन करवाते भी उनको अनेक बार देखा है। शहर के अग्रणी सामाजिक कार्यक्रमों के रूप में ,स्त्री विमर्श में विद्वतापूर्ण सहभागी सहृदयी महिला के रूप में उत्तम अध्यापक व कुशल व्यवस्थापक के रूप में मित्र मण्डली में नेता के रूप में ,संास्कृतिक कार्यक्रमों में मर्मज्ञ कला रसिक के रूप में खेलकूद में अपने समय की बेडमिन्टन खिलाड़ी के रूप में, मददगार प्रवृत्ति से, पतिदेव मजीठिया जी के लिए एक दक्ष ग्रहणी व अपूर्व की ममतामयी मां के रूप में उनके अनेक रूप देखने को मिलते है। स्थानीय महिला कॊलेज की प्राचार्य के रूप में तो उनकी प्रशासनिक शैली के साथ संवेदनशील मित्र सलाहकार के रूप में छोड़ी गई छाप भूलाए नहीं भूलती। ऊर्जावान कृष्णा जी के अंतिम वर्ष भारी वेदना में बीते। खब्वू कृष्णाबेन ने शुरु में तो बाॅए हाथ में साधारण दर्द की शिकायत की। पर कालान्तर में विविध इलाज - उपचार के बाद भी उनका यह रोग बढ़ता गया । प्राचार्य के रूप में जरुरी कागजातों पर इस हाथ से हस्ताक्षर करना भी मुश्किल हाने लगा।मुंबई में जांच करवायी गई । बायोप्सी से कैंसर होने की बात सामने आई जिसकी गंभीरता का उनको पूरा ख्याल था। माथे के बाल सफेद हो गए। सूजन आए हुए हाथ को बड़ी मुश्किल से इधर-उधर रखती। "कैसा लग रहा है"? का एक ही रटा रटाया जवाब - "ठीक लग रहा है।" असहनीय पीड़ा होते हुए भी उनके मुख पर मुस्कराहट कभी पूर्ण रूप से ओझल नहीं हुई। करांची के राम-मन्दिर रोड़ पर स्थित एक मकान में जिदंगी के कितने वर्ष उन्होने बिताए। उनका भाई एयर इण्डिया में उच्च अधिकारी बना। अपूर्व के जन्म के समय उन्होने कैसे घर बार का मोर्चा संभाला। काॅलेज के अध्ययन-काल में किसी एक अध्यापक ने कुछ भी नहीं पढ़ाया तो भी सहपाठियों के साथ समूह बनाकर बिन्दुवार कुछ प्रश्न तैयार करके उच्चतम अंक प्राप्त किये। अपूर्व को जब विद्यानगर पढने के लिए भेजा तो एक बार अचानक दोपहर में ढ़ाई बजे की बस में बैठकर सीधे हॊस्टल जा पहुँची और अपने लाड़ले के क्रियाकलापों की पूरी जानकारी ली। ऐसे अनेकानेक प्रसंग उनके नाम के साथ स्मृति में संकलित है। शुरु से आत्मविश्वास से भरे पर आखिरी दिनों में स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से थके हारे , सीधे, तेजस्वी और सरलता - सादगी से युक्त कृष्णाबेन अब तो दैहिक रूप से मौजूद नहीं पर आज भी जब-जब उनके घर फोन डाॅयल किया जाता है तो सामने से रिसीवर उठा कर कानों में किसी अन्य की चाहे जो भी आवाज सुनाई पड़े पर एक क्षण के लिए मन में वही आवाज गूँजती है- "हाँ , मैं कृष्णा मजीठिया, आप ............?"

मूल- डॊ. किरीट आर. भट्ट 16-ए, प्रशांत, हरियाला प्लॊट , बारडी गेट, कृष्णनगर , भावनगर (गुजरात)

अनुवाद- मदन गोपाल लढ़ा